Supreme Court की फटकार: “चार साल से जेल में बंद है आरोपी, High Court 27 बार टालता रहा जमानत”
चार साल जेल में, लेकिन सुनवाई नहीं!
Supreme Court ने इलाहाबाद हाईकोर्ट पर जताई नाराज़गी, 27 बार टली जमानत याचिका पर सुनाई खरी-खरी नई दिल्ली से एक बेहद संवेदनशील मामला सामने आया है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट को कड़ी फटकार लगाई है। कारण यह था कि एक आरोपी की जमानत याचिका को 27 बार टाला गया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का सीधा उल्लंघन मानते हुए आरोपी को तुरंत जमानत देने का आदेश दिया।

न्याय की गति इतनी धीमी क्यों?
सुप्रीम कोर्ट की पीठ में शामिल मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने सख्त लहजे में कहा:
“आरोपी पिछले चार वर्षों से जेल में है। हाईकोर्ट ने 27 बार मामले को स्थगित किया, लेकिन कोई अंतिम निर्णय नहीं दिया। अब हम 28वीं बार से क्या उम्मीद करें?”
यह टिप्पणी न केवल संबंधित मामले की गंभीरता को दर्शाती है, बल्कि यह भी उजागर करती है कि न्यायिक प्रक्रियाओं में हो रही देरी कैसे एक आम व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन कर सकती है।
कौन है याचिकाकर्ता?
इस मामले में याचिकाकर्ता करीब 3 साल, 8 महीने और 24 दिन से हिरासत में है। उसके खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत मामला दर्ज किया गया है। साथ ही, सीबीआई ने जमानत का विरोध यह कहते हुए किया कि वह अन्य 33 मामलों में भी शामिल है।
सुप्रीम कोर्ट का बड़ा सवाल: क्या हम बस तारीख पर तारीख देते रहेंगे?
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने तीखे सवाल उठाए। मुख्य न्यायाधीश गवई ने कहा:
“व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मामलों में अदालतों से यही अपेक्षा की जाती है कि वे तत्परता दिखाएं, न कि मामलों को अनिश्चितकाल तक लटकाएं।”
उन्होंने यह भी जोड़ा कि यदि शिकायतकर्ता का बयान पहले ही दर्ज हो चुका है, तो बार-बार स्थगन का कोई औचित्य नहीं है।
हाईकोर्ट पर सवाल: निष्क्रियता या अनदेखी?
इस पूरे घटनाक्रम में सवाल हाईकोर्ट की कार्यशैली पर भी उठे। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि न्यायपालिका की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना है। जब चार साल तक एक मामला केवल टलता ही रहा और आरोपी जेल में बंद रहा, तो यह न्याय का मजाक नहीं तो और क्या है?
आरोपी को क्यों मिली अंततः जमानत?
- शिकायतकर्ता का बयान दर्ज हो चुका था।
- आरोपी चार साल से अधिक समय से जेल में था।
- हाईकोर्ट ने लगातार 27 बार सुनवाई टाली थी।
- सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुए प्रत्यक्ष हस्तक्षेप किया।
इस सबके मद्देनज़र, सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को तत्काल जमानत देने का आदेश दिया और कहा कि आगे से ऐसे मामलों में संवेदनशीलता और तत्परता दोनों आवश्यक हैं।
CBI का विरोध क्यों हुआ?
सीबीआई ने तर्क दिया कि आरोपी पर पहले से ही 33 अन्य मामलों में संलिप्तता का आरोप है और जमानत से जांच पर असर पड़ सकता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इतने लंबे समय तक जेल में रखने का कोई ठोस कारण न होना भी संविधान की आत्मा के खिलाफ है।

यह मामला क्यों है हर भारतीय के लिए अहम?
यह केवल एक आरोपी की कहानी नहीं है, बल्कि भारत में न्यायिक प्रक्रिया की स्थिति का आइना है। जहां एक ओर “न्याय में देरी भी अन्याय है” जैसी कहावतें दी जाती हैं, वहीं वास्तविकता में आज भी हजारों ऐसे आरोपी जेलों में बंद हैं, जिनकी सुनवाई वर्षों तक नहीं हो पाती।
आगे क्या?
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को न्यायिक जवाबदेही की दिशा में एक सकारात्मक कदम माना जा सकता है। इसके बाद न्यायिक तंत्र में समयबद्धता को लेकर एक नई बहस जरूर शुरू होगी।
क्या भारतीय न्याय व्यवस्था को आत्ममंथन की ज़रूरत है?
यह घटना सिर्फ एक आरोपी या एक कोर्ट रूम की नहीं है। यह भारत की उस न्यायिक व्यवस्था की तस्वीर है जो कभी-कभी इतने धीमे गति से चलती है कि पीड़ित या आरोपी दोनों के लिए यह एक त्रासदी बन जाती है। जमानत, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत आने वाले जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मूल अधिकार है। जब यह अधिकार चार वर्षों तक अनदेखा होता है, तब यह सवाल खड़ा करता है कि – क्या हम संवैधानिक मूल्यों के प्रति सचेत हैं?
क्या है ‘टाइमबाउंड’ जस्टिस की आवश्यकता?
सुप्रीम कोर्ट पहले भी समय-समय पर यह कह चुका है कि न्याय में देरी, न्याय को नकारने के बराबर होती है। विशेषकर जब मामला जमानत से जुड़ा हो, तो उसे ‘त्वरित प्राथमिकता’ मिलनी चाहिए। दुर्भाग्यवश, निचली अदालतों से लेकर उच्च न्यायालयों तक, कई मामलों में टालमटोल या तारीख पर तारीख का रवैया देखने को मिलता है।
दोषी को सजा, लेकिन पहले निष्पक्ष सुनवाई तो हो

सीबीआई का तर्क था कि आरोपी अन्य मामलों में भी संलिप्त है। लेकिन जब तक अदालत आरोप साबित नहीं करती, कोई भी व्यक्ति कानून की नजर में दोषी नहीं होता। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह कहना वाजिब है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े मामलों को इतनी लंबी अवधि तक लंबित नहीं रखा जा सकता।
समाज के लिए संदेश
इस निर्णय से यह साफ संकेत गया है कि कानून का काम सिर्फ सजा देना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी है कि निर्दोष व्यक्ति सालों तक जेल में न सड़ें। हर भारतीय नागरिक को इस अधिकार का ज्ञान और संरक्षण मिलना चाहिए। यह फैसला उन हज़ारों मामलों के लिए एक मिसाल बनेगा जो वर्षों से कोर्ट की सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं।
न्याय प्रणाली में देरी पर फिर उठा सवाल
इस प्रकरण ने एक बार फिर भारत की न्यायिक प्रणाली में देरी को लेकर सवाल खड़े कर दिए हैं। जब किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता दांव पर लगी हो, तो उसके मामले को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी यह दर्शाती है कि केवल तकनीकी कारणों से सुनवाई टालना एक ग़ैर-जिम्मेदाराना रवैया है, खासकर तब जब मामला ज़मानत जैसा संवेदनशील मुद्दा हो।
इस केस में आरोपी 4 साल से भी अधिक समय से जेल में बंद है, और हाईकोर्ट द्वारा 27 बार सुनवाई को टालना संविधान के उस मूल अधिकार का उल्लंघन है, जो प्रत्येक नागरिक को न्याय पाने का हक देता है। सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप कई अन्य लंबित मामलों के लिए भी एक संदेश है कि न्याय में देरी, न्याय से इनकार के बराबर है।
यह मामला यह भी दर्शाता है कि जब हाईकोर्ट जैसे उच्च स्तर की अदालतें निष्क्रिय होती हैं, तो सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ता है। न्यायपालिका को यह समझने की ज़रूरत है कि ‘जमानत, सज़ा नहीं’ का सिद्धांत केवल काग़ज़ों तक सीमित न रहे, बल्कि व्यवहार में भी लागू हो।
ज़मानत में देरी: सिर्फ एक मामला नहीं, एक प्रणालीगत संकट
इस मामले को सिर्फ एक व्यक्ति की ज़मानत याचिका से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। यह एक बड़े और गंभीर समस्या की ओर इशारा करता है – भारत की न्यायिक प्रणाली में व्याप्त विलंब। हजारों आरोपी, जिनपर दोष सिद्ध नहीं हुआ है, वर्षों से जेलों में बंद हैं, सिर्फ इसलिए क्योंकि उनके मामले समय पर सुने नहीं जाते। यह न केवल उनकी आज़ादी का हनन है, बल्कि यह संविधान की मूल भावना के भी विपरीत है।
अदालतें जहां एक ओर नागरिकों के अधिकारों की रक्षक मानी जाती हैं, वहीं जब वे मामलों की सुनवाई में वर्षों लगाती हैं, तो आम जनता का भरोसा कमजोर होने लगता है। सुप्रीम कोर्ट का यह तीखा रुख बताता है कि अब समय आ गया है कि निचली और उच्च अदालतें भी मामलों को प्राथमिकता से लें, विशेषकर तब जब वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े हों।
यह मामला भविष्य के लिए एक उदाहरण बन सकता है यदि न्यायपालिका इससे सीख लेकर सुनवाई प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और समयबद्ध बनाए। जनता को भी यह समझने की ज़रूरत है कि न्याय केवल फैसले सुनाने से नहीं, बल्कि समय पर सुनवाई से भी सुनिश्चित होता है।
सुप्रीम कोर्ट की सख़्ती: एक चेतावनी न्याय व्यवस्था के लिए
सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट की आलोचना केवल एक न्यायिक टिप्पणी नहीं थी, बल्कि यह पूरे देश की न्यायिक प्रणाली के लिए एक स्पष्ट चेतावनी भी है। कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि अगर उच्च न्यायालयें समय पर निर्णय नहीं लेतीं, तो सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ेगा, और यह देश की न्याय व्यवस्था के लिए एक गंभीर प्रश्नचिन्ह है।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता हमारे संविधान के मूल स्तंभों में से एक है। जब कोई अभियुक्त बिना दोष सिद्ध हुए सालों तक जेल में रहता है, तो यह न केवल न्याय में देरी है, बल्कि न्याय का हनन भी है। सुप्रीम कोर्ट का यह बयान कि “क्या आप 28वीं बार कोई चमत्कार की उम्मीद कर रहे हैं?” एक तीखा कटाक्ष था, जो न्यायिक प्रणाली की निष्क्रियता पर चोट करता है।
इतने वर्षों तक बिना जमानत के जेल में रहना एक व्यक्ति की मानसिक, सामाजिक और पारिवारिक स्थिति को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है। अदालतों को यह समझने की ज़रूरत है कि हर टालमटोल किसी की ज़िंदगी को और अधिक संकट में डाल देता है। इसलिए, सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल एक आरोपी को राहत देने वाला था, बल्कि पूरे न्याय तंत्र को झकझोरने वाला था।
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Source-Indiatv
Written by -sujal