Maharashtra Tribal Men को नहीं मिली एंबुलेंस, प्लास्टिक थैली में नवजात का शव लेकर 90 किमी तक सफर

महाराष्ट्र के पालघर जिले से एक ऐसा मामला सामने आया है, जिसने न सिर्फ राज्य के स्वास्थ्य तंत्र की पोल खोल दी है, बल्कि यह घटना पूरे सरकारी सिस्टम पर गहरे सवाल भी खड़े करती है। एक आदिवासी मजदूर को अपनी नवजात मृत बेटी का शव प्लास्टिक की थैली में रखकर बस से अपने गांव ले जाना पड़ा, क्योंकि अस्पताल ने एंबुलेंस देने से साफ इनकार कर दिया।
यह मामला जितना भावुक है, उतना ही चिंताजनक भी। एक पिता का अपनी मृत बच्ची के लिए इतना मजबूर हो जाना यह बताता है कि हमारे सिस्टम में गरीबों के लिए संवेदना की कितनी कमी है।
आदिवासी परिवार की मार्मिक कहानी

यह घटना जोगलवाड़ी गांव के निवासी सखरम कावर की है, जो कटकारी जनजाति से ताल्लुक रखते हैं। सखरम और उनकी पत्नी अविता दोनों ही दिहाड़ी मजदूर हैं और हाल ही तक बदलापुर (ठाणे) के पास एक ईंट भट्ठे पर काम कर रहे थे। सुरक्षित प्रसव के लिए वे अपने गांव लौटे थे, लेकिन उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि उनका सामना ऐसी अमानवीय स्थिति से होगा।
नहीं आई एंबुलेंस, कई अस्पतालों के चक्कर काटे
11 जून को जब अविता को प्रसव पीड़ा शुरू हुई, तब सखरम ने सरकारी एंबुलेंस के लिए कॉल किया, लेकिन कोई एंबुलेंस नहीं पहुंची। मजबूरी में उन्होंने अपने स्तर पर परिवहन की व्यवस्था की और कई अस्पतालों में भटकने के बाद आखिरकार 12 जून की रात को नासिक के एक अस्पताल में बच्ची का मृत जन्म हुआ।

अस्पताल से नहीं मिली अंतिम यात्रा के लिए मदद
13 जून की सुबह अस्पताल ने शव तो सौंप दिया, लेकिन शव को गांव तक पहुंचाने के लिए किसी भी प्रकार की परिवहन सुविधा उपलब्ध नहीं करवाई। इस पर मजबूर होकर सखरम ने 20 रुपये में एक प्लास्टिक की थैली खरीदी, बच्ची के शव को उसमें कपड़े में लपेटा और राज्य परिवहन की बस से करीब 90 किलोमीटर दूर अपने गांव लौटे।
अधिकारी बोले- पिता ने खुद एंबुलेंस नहीं ली
स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों का कहना है कि अस्पताल ने हर जरूरी सहायता दी और सखरम ने खुद एंबुलेंस लेने से इनकार कर दिया था। हालांकि सखरम ने इन दावों को सिरे से खारिज किया है। उन्होंने कहा कि अस्पताल ने कोई सहयोग नहीं किया और उन्हें मजबूरी में बस से सफर करना पड़ा।
सवालों के घेरे में सरकारी तंत्र
इस घटना ने सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की तैयारियों पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। जिस राज्य में स्वास्थ्य बजट हर साल बढ़ाया जाता है, वहां एक गरीब को अपने नवजात के शव को प्लास्टिक में लपेटकर ले जाना पड़े, यह बेहद शर्मनाक है।
सामाजिक संगठनों और विपक्ष ने जताई नाराजगी
यह मामला सामने आने के बाद कई सामाजिक संगठनों ने सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए हैं। कांग्रेस और एनसीपी जैसे विपक्षी दलों ने इस मामले की उच्चस्तरीय जांच की मांग की है। वहीं, सोशल मीडिया पर भी इस घटना की व्यापक निंदा हो रही है।
यह एक घटना नहीं, सिस्टम की सच्चाई है
ऐसी घटनाएं देश के अलग-अलग हिस्सों में लगातार सामने आती रही हैं। कहीं मरीज को चारपाई पर खींचकर अस्पताल ले जाया जाता है, तो कहीं शव को साइकिल पर ले जाने की मजबूरी होती है। यह सवाल सिर्फ महाराष्ट्र का नहीं, पूरे भारत के हेल्थ सिस्टम की सच्चाई का आइना है।
मानवाधिकार आयोग से जांच की मांग
घटना के बाद महाराष्ट्र मानवाधिकार आयोग से भी अपील की गई है कि वह मामले का संज्ञान लेकर जांच कराए। इस तरह की घटनाएं केवल संवेदनहीनता की नहीं, बल्कि संवैधानिक कर्तव्यों की भी अवहेलना हैं।
आदिवासी मजदूर की बेबसी पर उठे कई सवाल, सिस्टम बना तमाशबीन
महाराष्ट्र के पालघर जिले में जो घटना घटी, उसने एक बार फिर हमारे सरकारी सिस्टम की संवेदनहीनता को उजागर कर दिया है। कटकारी जनजाति के मजदूर सखरम कावर की नवजात बेटी मृत पैदा हुई। लेकिन दुख की घड़ी में भी सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली। शव को गांव तक ले जाने के लिए अस्पताल ने एंबुलेंस देने से इनकार कर दिया। मजबूरन एक पिता को अपनी बच्ची का शव 20 रुपये में खरीदी गई प्लास्टिक की थैली में लपेटकर 90 किलोमीटर दूर तक बस में सफर करना पड़ा।
यह घटना नहीं, सवाल है व्यवस्था पर
एक तरफ केंद्र और राज्य सरकारें गरीबों के लिए योजनाएं और स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर करने के दावे करती हैं, वहीं जब ज़मीनी हकीकत सामने आती है तो ऐसे वादे खोखले नजर आते हैं। अगर सखरम जैसे मजदूर को, जिसने अस्पतालों के चक्कर काटते हुए अपनी बच्ची को खो दिया, एंबुलेंस तक नसीब न हो, तो यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि आखिर ये योजनाएं किसके लिए हैं?
अस्पताल प्रशासन की सफाई
नासिक सिविल अस्पताल ने अपने बचाव में कहा कि सखरम ने खुद एंबुलेंस लेने से मना कर दिया था। लेकिन सवाल ये है कि एक गरीब मजदूर जो अपनी बच्ची को खो चुका है, क्या वो एंबुलेंस से मना करेगा? अगर उसके पास विकल्प होता तो क्या वो प्लास्टिक की थैली में लपेटकर शव लेकर जाता? अस्पताल की यह सफाई असंवेदनशीलता को छुपाने की कोशिश भर है।
मानवीय गरिमा की अवहेलना
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में हर नागरिक को गरिमा से जीने और मरने का अधिकार है। यह घटना बताती है कि हमारे सिस्टम में गरीबों की मौत की भी इज्जत नहीं है। ना तो शव वाहन की सुविधा दी गई, ना ही संवेदनशीलता दिखाई गई। शव को ऐसे ले जाना किसी भी मानवीय दृष्टिकोण से सही नहीं ठहराया जा सकता।
इस घटना से उभरते सवाल
- क्या सरकारी अस्पतालों में शव ले जाने के लिए एंबुलेंस की अनिवार्य व्यवस्था नहीं होनी चाहिए?
- क्या गरीबी अब भी मानवीय सहानुभूति से वंचित कर देती है?
- क्या सिर्फ बयान देकर जिम्मेदारी से बचना प्रशासनिक जवाबदेही को खत्म नहीं करता?
जनप्रतिनिधियों और प्रशासन की चुप्पी
स्थानीय नेताओं की चुप्पी भी इस मामले में चौंकाने वाली रही है। जहां इस मुद्दे को विधानसभा और मीडिया में जोर-शोर से उठाया जाना चाहिए, वहां कोई बड़ा नेता या मंत्री सामने नहीं आया। यह चुप्पी कहीं न कहीं इस बात का प्रमाण है कि गरीबों की पीड़ा अब भी वोट बैंक से कम महत्वपूर्ण समझी जाती है।